jliyavala bag

भारत के स्वत्रंता सग्राम में जलियावाला बाग नरसंहार आज भी लोगो के रोंगटे खड़े कर देता है। इस कहानी में हमने अपने ह्रदय की वेदना को व्यक्त किया है। 

ओ बलिदान के अमर चिन्ह !करवट बदलते संसार के रक्तरंजित इतिहास की सिसकती पृस्ठभूमि पर वह दिन गौरवमय आँसू से डूबी कलम से लिखा जाता रहेगा ,जब स्वाधीनता के मतवाले साहसी वीरो ने नृशंस डायर को ही नहीं ,समस्त अंग्रेजी सत्तो को ललकारते हुए तुम्हारे विशाल प्रांगण में एक विशाल -सभा का आयोजन किया। पराधीनता की विषैली वायु में सांस लेते -लेते जब तुम्हारी घुटन सब्र की सीमा को लाँघ गई -तुमने अपना विशाल वर्कस्थ्ल खोल दिया -व्याकुल भुजाएँ फैला दी ,वीरो का स्वागत करने के लिए। 
      उस समय तुममे कितना उत्साह था। तुम्हारा एक -एक अंग गौरव -वीरता से भड़क उठा ,तुम्हारे अंतर् की असीम गहराइयों में स्वाधीनता के शोले धधक रहे थे ,तुम्हारा चेतन -मानस पुकार उठा ,ह्रदय ने आहवान किया। 
                     ओ अमर धरा ! तुमने अपने समस्त अरमानो को स्वाधीनता की धधकती ज्वाला में झोंक दिया और तुम्हारा कण -कण पुकार उठा --जय भारत !तुमुल नाद से अंबर के छोर भर उठे थे ,दसो दिशाएँ परकप्ती हो उठी थी और तब फट गए बोरियो के कर्ण -कुहर ,तुमने क्रांति का भव्य दीप प्रज्वलित किया ,परन्तु इसकी चकाचोंध सत्ता के व्यर्थ अभिमान को न सह सकी। वह घिरा भयंकर तूफान बनकर ,वह चला दानव बन मानवता को लीलने,.... .. .... ....... .... और तुमने ,हे उदारहृदय ! अपना विशाल वकसथल खोल दिया सहर्ष। 
                                        पर, ... ........ ......... दानवता -नरसत्ता के आगे सिर झुकने से इंकार कर दिया। 
                                                 धन्य है तुम्हारा स्वाभिमान ,धन्य है तुम्हारा त्याग ,तुम्हारा धैर्य !
                                                                          सहस्त्रो गोलियों से छलनी -सा छी दकर  भी तुम्हारे मुख से दुःखभरी आह तक न निकली !निकली केवल गरजती -गभींर आवाज ,जिसमे स्वाधीनता से पूर्ण स्वाभिमान पुकार -पुकारकर अपने अस्तित्व की घोसणा कर रहा था। तूफानी आपदाओं को सहकर भी तुम , हे दृढ़ वीर ! अपने कर्तव्य पर ,अपनी आन पर हिमगिरि -से अचल रहे ,कितने महान हो तुम ,हे वीरव्रती !
               आज वर्षो बीत गए। तुम्हारे रक्त की एक -एक बूंद पुकार -पुकारकर उस नर्सश्गंता की कहानी कह रही है ,तुम्हारी खामोश माटी का एक -एक कण शहीदों की भावनाओ -बलिदान के अमर गीतों को अंतर के अज्ञात कोने में छिपाए है --इस आशा में कि कोई युग आएगा तो ढूंढ निकालेगा ,उस दर्द से -तड़पन -लगन से सास्त्कार कर सकेगा। 
                                              आज भी साय -साय करती हवा इस छोर से उस छोर तक जाती है,तुम्हारी अव्यक्त कराह ,वेदना ,पीड़ा पुकार करती है। सुबह की नमी में ,संध्या की लालिमा में पंछी आज भी वह दर्दभरा राग गुफाओ की जगत पर बैठकर अलापते है --ह्रदय की वेदना को ,पावन भावनाओ को दो बूँद आँसू के रूप में 
प्रकट करते है ,जो रक्त -बिन्दुओ से मिलकर हाहाकार मचा देती है। वे खंडहर -अमर बलिदान के प्रतीक ! जोश ,शास्वत बलिदान !
       
                                                               आज भी मदन गोपाल < एक पचवर्षीय बालक ,जिसे क्रूर डायर ने अपनी कुरुरता की चरम -सीमा पर शूट किया था। >की शहीद आत्मा तुम्हारे कण -कण में समाकर उस प्रकाश -संतभ का प्रतीक बन चुकी है ,जो न केवल भारत को ,वरन विस्व को प्रकाशित करती नभ की अछोर सीमा को लांघ गौरव में विहस रही है। 






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