SATYVADI HARICHNDER
भारत -भूमि पर अनेक महापुरषो ने जन्म लिया है। ऐसे ही एक महापुरुष राजा हरीशचद्र जिनके जीवन की एक घटना को हम इस कहानी के माध्यम से बताने जा रहे है।
प्राचीन काल में सूर्यवंशी राजा अपनी वीरता ,उदारता और सत्यप्रियता के कारण बड़े परसिद्ध थे। इसी वंश में हरीश चंदर नाम के एक प्रतापी राजा हुए। यह बड़े सत्यवादी और अपने वचन पर दृढ़ रहने वाले थे। एक रात को राजा एक स्वपन देखा कि वह राजसभा में बैठे है और एक बड़े तेजस्वी ब्रह्मण ने आकर उनसे दान मांगा है। उन्होंने उस ब्रह्मण को अपना सारा राज्य दान में दे दिया है।
प्रातः काल राजा जगे तो उस स्वपन का स्मरण करके बड़े चिंतित हुए। जब वह राजसभा में पहुंचे तो उनको चिंतित देखकर मंत्री ने उनकी चिंता का कारण पूछा।
राजा ने मंत्री को स्वपन की बात बताई। मंत्री ने हसकर कहा -' महाराज '! स्वपन में तो मनुष्य न जाने क्या -क्या देखता है। आप व्यर्थ इतने चिंतित हो रहे हो। ' राजा को मंत्री की बात से संतोष नहीं हुआ। वह सोचते रहे कि ब्रह्मण को कैसे खोजे और अपना वचन पूरा करे। राजा इसी सोच -विचार में लीन थे कि एक ब्रह्मण ने राजसभा में प्रवेश किया। राजा उसे देखकर चौक उठे। अरे यह तो वही स्वपन वाला ब्राह्मण है। ब्रह्मण ने व्यंग से मुस्कराते हुए , राजा से पूछा -''कहो राजन ! हमे पहचाना ?' राजा चकित होकर उसे देखते रह गए। राजा को चुप देखकर ब्राह्मण , जो कि ऋषि विस्वा मित्र थे, रुस्ट होकर बोले -'नहीं ऋषिवर ! ऐसा कैसा हो सकता है। यह राज्य आपका है। हरिशचद्र कभी अपने वचन से नहीं टल सकता। ' ऋषि ने क्रोध से कहा -' तो फिर इतने बड़े दान की दक्षिणा कहाँ है ? दक्षिणा के बिना दान कभी पूरा नहीं होता। '
राजा ने कहा - ' भगवान ! दक्षिणा अवश्य मिलेगी। ' उन्होंने मंत्री से कहा - जाइए राजकोष से एक लाख मुद्राए लाकर महृषि को सादर दक्षिणा प्रदान कीजिए। ' ऋषि ने और क्रुद्ध होकर कहा - " वाह रे सत्यवादी ! राजकोष अब तेरा है या मेरा ?
दक्षिणा नहीं है तो अपना दान लौटा ले। हम जाते है। ' राजा ने ऋषि के चरणों में गिरकर छमा मांगी और कहा -"भगवान ! भूल के लिए छमा चाहता हूँ। राज्य ,राजकोष सभी कुछ आपका है। में आपकी दक्षिणा अवश्य चुकाऊंगा ,मुझे कुछ समय देने की कृपा करे। " विस्वामित्र ने कहा -" ठीक है ,यदि एक मास के भीतर मुझे दक्षिणा नहीं मिली तो मै साप देकर तुझे परिवार सहित भस्म कर दूंगा। ''
महाराज हरिशचंद्र को शाप का भय नहीं था ,उनको तो वचन के भंग होने की चिंता थी। राजा , रानी शैव्या और पुत्र रोहितास्व को साथ लेकर चल दिए और काशी जा पहुंचे। उन्होंने स्वयं को बेचकर दक्षिणा चुकाने का निस्चय कर लिया। रानी और पुत्र भी कैसे पीछे रहते। वे भी बिकने को तैयार हो गए।
राजा ने बहुत प्रयत्न किया परंतु तीनो प्राणियों को एक साथ मोल लेने वाला कोई नहीं मिला। पहले रानी और पुत्र को एक ब्र्हामण ने खरीदा। राजा को एक श्मसान में रहने वाले डोम ने खरीदा। रानी को सारा दिन ब्र्हामण के घर में काम करना पड़ता था।
और राजा को मरघट का पहरा देकर वहाँ आने वालो से कर लेने का काम मिला।
एक दिन रोहितास्व ब्र्हामण की पूजा के लिए फूल चुनने गया। वहाँ उसे किसी सर्प ने डस लिया और उसकी मर्त्यु हो गयी। रानी पर तो जैसे व्रज टूट पड़ा। वह बेचारी विलाप करती हुई उसे समसान ले गई। राजा हरिशचद्र वहाँ पहरा दे रहे थे। उन्होंने रानी को नहीं पहचाना और उससे कर मांगा। रानी पर कर देने को किया था ? वह रोने लगी। उसके विलाप से राजा को पता चला की वह तो उसकी पत्नी है और मृत बालक उसका पुत्र रोहितास्व है। लेकिन राजा ने अपना धर्म नहीं छोड़ा।
उन्होंने रानी को धैर्य बधाया और कहा कि वह अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करने को विवश है। उन्होंने रानी से कहा कि यदि उसके पास कर देने को कुछ नहीं है तो अपनी साडी से आधा भाग फाड़कर दे दे।
रानी ने रोते हुए जैसे ही अपनी साड़ी का आधा भाग फाड़ना चाहा कि अचानक जोर की गर्जना हुई ,धरती काँप उठी और आकाश में हरीशचद्र और रानी पर फूलो की वर्षा तीव्र प्रकाश के साथ वहाँ विस्वामित्र और देवता प्रकट हो गए।
विस्वामित्र ने कहा -' बस ,राजन ! आपकी परीक्षा पूरी हुई। वास्तव में आप जैसा सत्यवादी न कभी हुआ और न कभी होगा। यह सारा नाटक आपकी सत्यवादिता की परीक्षा के लिए रचा गया था।
न आपका राज्य गया है और न आप बिके है। 'रोहितास्व भी जीवित हो उठा और सभी से आश्रीवाद पाकर महाराज हरीशचद्र अपने राज्य लोट आए।
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