Keya nirash hua jaye

इस कहानी में हमने निराशा के स्थान पर सदैव आशावान रहने की प्रेरणा दी है। 

मेरा मन कभी -कभी बैठ जाता है। समाचार पत्रों में ठगी ,डकैती ,चोरी ,तस्करी और भ्र्ष्टाचार भरे रहते है। आरोप -प्रत्यरोप का कुछ ऐसा वातावरण बन गया है कि लगता है ,देश में कोई ईमानदार आदमी ही नहीं रह गया है। हर व्यक्ति संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। जो जितने ही ऊंचे पद पर है ,उसमे उतने ही अधिक दोष दिखाए जाते है। एक बहुत बड़े आदमी ने मुझसे एक बार कहा था कि इस समय सुखी वही है ,जो कुछ नहीं करता। जो भी कुछ करेगा उसमे लोग दोष खोजने लगेंगे। उसके सारे गुण भुला दिए जायगे और दोषो को बढ़ा -चढ़ाकर दिखाया जाने लगेगा। दोष किसमें नहीं होते ? यही कारण है कि हर आदमी दोषी अधिक दिख रहा है ,गुणी कम या बिलकुल ही नहीं। सिथित अगर ऐसी है तो निश्चय ही चिंता का विषय है। किया यही भारतवर्ष है ,जिसका सपना तिलक और गाँधी ने देखा था ? 
                       रवीन्रनाथ नाथ ठाकुर और मदनमोहन मालवीय का महान संस्कृति -सभ्य भारतवर्ष किस अतीत के गहवर में डूब गया ? आर्य और द्रविड़ ,हिन्दू और मुसलमान ,यूरोपीय और भारतीय आदर्शो की मिलन -भूमि 'मानव महा-समुद्र 'किया सुख ही गया ? मेरा मन कहता है ऐसा हो नहीं सकता। हमारे महान मनीषियों के सपनो का भारत है और रहेगा। यही सही है कि इन दिनों कुछ माहौल बना है कि ईमानदारी से मेहनत करके जीविका चलाने वाले नीरहि और भोले -भाले श्रमजीवी पिस रहे है और झूठ तथा फरेब का रोजगार करने वाले फल -फूल रहे है। 
                                                                          ईमानदारी को मूर्खता का पयार्य समझा जाने लगा है। सच्चाई केवल भीरु और बेबस लोगो के हिस्से में पड़ी है। ऐसी सिथित में  जीवन के महान मूल्यों के बारे में लोगो की आस्था ही हिलने लगी है। परन्तु ऊपर -ऊपर जो दिखाई दे रहा है ,वह बहुत ही हाल की मनुष्य -निर्मिति नीतियों की देन है। सदा मनुष्य -बुद्धि नई  परिस्थितियों का सामना करने के लिए नये सामाजिक विधि -निषेधों को बनाती है,उनके ठीक साबित न होने पर उन्हें बदलती है। नियम -कानून सबके लिए बनाये जाते है, पर सबके लिए कभी -कभी एक ही नियम सुखकर नहीं होते। सामाजिक कायदे -कानून कभी युग -युग से परीक्षित आदर्शो से टकराते है।,इससे ऊपरी सतह आलोड़ित भी होती है ,पहले भी हुआ है ,आगे भी होगा। 
      उसे देखकर हताश हो जाना ठीक नहीं है। भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओ के संग्रह को बहुत अधिक महत्त्व नहीं दिया है ,उसकी दृष्टि से मनुष्य के भीतर जो महान आंतरिक तत्वत सिथर भाव से बैठा हुआ है,वही चरम और परम् है। लोभ -मोह ,काम -क्रोध आदि विकार मनुष्य में स्वभाविक रूप से विद्य्मान रहते है, पर उन्हें प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन तथा बुद्धि को उन्ही के इशारे पर छोड़ देना बहुत निकृष्ट आचरण है। भारतवर्ष ने कभी भी उन्हें उचित नहीं माना ,उन्हें सदा संयम के बंधन में बांधकर रखने का प्रयत्न किया है। 

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