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विशेष --महान लोगो की संगत बुरे से बुरे आदमी को भी  सुधार सकती है। प्रस्तुत कहानी में यही संदेश दिया गया है। 

संसार में समय -समय पर सचाई और धर्म फैलाने के लिए महात्माओ को बराबर फिरते रहना पड़ा है। जिस प्रकार हमारे बापू गाँधी जी को गांव -गांव फिरना पड़ा ,उसी तरह महात्मा बुद्ध को भी करीब 45 वर्ष तक लगातार दुनिया की भलाई के लिए एक स्थान से दूसरे  स्थान पर बराबर आना -जाना पड़ा। 
               एक बार वे बिबासर की राजधानी राजगृह से चलकर कौशल पहुंचे। कौशल तब अवध को कहते थे। अयोध्या के आस -पास के राज्यों की राजधानी श्रावस्ती  थी। वहाँ आजकल सहठ -महठ नाम का गांव खड़ा है। 
वहाँ का राजा प्रेसनजीत था। राजा महात्मा बुद्ध का शिष्य था और इसीलिए बुद्ध उसको अपने उपदेश सुनाने अक्सर जाया करते थे। एक बार वे श्रावस्ती पहुंचे तो राजा को उन्होंने बड़ा व्याकुल पाया। पूछने पर राजा ने बताया ," मेँ दो कारणों से बड़ा दुःखी हूँ। एक तो मेरा बेटा बिड़भ बड़ा नालायक है। दूसरे अंगुलिमाल नाम का डाकू प्रजा को बहुत तंग करता है ; तकलीफ देता है जो मेँ सहन नहीं कर सकता ! कया करू ?"
                                  महात्मा बुद्ध ने राजा को धीरज बधाया और अंगुलिमाल पर विजय पाने का उसे विश्वास दिलाया। अंगुलिमाल बड़ा भयंकर डाकू था। उसके अत्याचारों से प्रसेनजित की प्रजा त्राहि -2 कर उठी थी ,गांव के गांव उजड़ गए थे। घर सम्पति ,जान कोई उसने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि मै हजार आदमियों की हत्या करुँगा। परन्तु हजार आदमियों को बारी -बारी मारकर उनकी संख्या याद रखना तो आसान नहीं था ,इसलिए उसने उसे याद रखने की एक युक्ति निकाली। 
                                                                           वह जब किसी का वध करता तब उसके शरीर को तो फेक देता ,परन्तु उसकी एक अंगुली काटकर अपने हार में गुँथ लेता। इस प्रकार मारे गए आदमियों की अंगुलियों की उसके पास एक माला -सी तैयार हो गई थी ,जिसे वह पहने रहता था। इन्ही अंगुलियों की माला पहने रहने के कारण उसका नाम अंगुलिमाल पड़ गया था। उसका नाम सुनकर वहाँ के लोग काँप उठते थे। जिधर से अंगुलिमाल निकल जाता ,उधर केवल चीख और पुकार सुनाई पड़ती उसका नाम लेकर माताए अपने बच्चो को डराने और सुलाने लगी। 
                                                                                                   उसके डरावने कारनामे दूर -दूर तक कहे जाने लगे। महात्मा बुद्ध श्रावस्ती से निकलकर उस जगल की रहा चले ,जहाँ अंगुलिमाल रहता था। जगल जहाँ से शुरू होता था ,वहाँ राजा की और से पहरेदार तैनात था जो उधर जाने वालो को रोके और सावधान कर दे कि उसी ओर भयकर अंगुलिमाल का निवास है। महात्मा बुद्ध जब उस ओर को चले तो पहरेदार उनके पास भी पहुंचा। वह जानता था कि महात्मा बुद्ध जैसे देवता का कोई कुछ बिगाड नहीं सकता ,परन्तु डर -तो डर है ,इसीलिए वह कुछ डर से ,कुछ अपना कर्तव्य समझकर बुद्ध के चरण पकड़कर बोला ---" महात्मा ! उधर विकराल डाकू अंगुलिमाल रहता है ,उधर न जाए। "
                    महात्मा हसे और पहरेदार के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे शांति और साहस प्रदान कर जगंल में घुसे जगंल घना भी था और महात्मा अनजान भी। इसी से उनको चलने में पहले तो कष्ट हुआ ,परन्तु जैसे -जैसे सूर्य आसमान पर उठने लगा ,वैसे -वैसे जगंल का अंधेरा दूर होने लगा और उनकी रहा में प्रकाश आने लगा। 
                                            दोपहर का समय था। सूरज का तपता हुआ गोला सिर पर था। चारो ओर से पेड़ो ने छाया कर रखी थी ,परंतु जंगल की राह चलना आसान नहीं होता। बुद्ध भी कुछ थक गए थे ,लेकिन वे रुके नहीं ,अपने ज्ञान से उनको विस्वास हो गया था कि दुनिया का दुःख निश्च्य ही दूर होगा। इसी विस्वास के कारण उनके चहरे पर मुस्कान हमेशा बनी रहती थी। उनका ललाट बराबर चमकता रहता था। आदमी -आदमी को मारता क्यों है ,जीव -जीव को देखकर प्रसन्न क्यों नहीं हो उठता ? इसी बात पर विचार करते महात्मा जगंल की राह बढ़े जा रहे थे कि एकाएक उन्हें किसी की सख्त और भारी आवाज सुनाई दी --" ठहर जा !"पहले तो उन्होंने उसे ठीक से न सुना ,और उनके पैर धीरे -धीरे आगे बढ़े ,पर इतने में वही स्वर फिर सुनाई पड़ा -"ठहर जा !"
                                                                         बुद्ध रुक गए। पीछे मुड़कर जो देखा तो ,जगंल की झाडिया चीरती ,विकराल डाकू की मूर्ति सामने आ खड़ी हुई। ऊंचा कद ,काला शरीर ,विकराल चेहरा ,लाल आँखे ,उठे हुए केश जो अस्त -व्यस्त पड़े थे ,बड़ी -बड़ी उठी हुई मुछे ,लंबी मजबूत भजाऐ ,बालो से भरा चौड़ा सीना ,हाथ में तलवार। निश्च्य ही वह मनुष्य नहीं था। कोई दैत्य था ,परंतु उसकी अंगुलियों की माला देखकर बुद्ध को पहचानते देर न लगी कि यह अंगुलिमाल डाकू है। महात्मा ने अपनी द्रष्टि उस पर डाली। 
                                                                                       उनकी नजर में डर के स्थान पर प्यार था। उन्होंने प्रेम पूर्वक उस भयानक डाकू से पूछा -"मै  तो ठहर गया। बता तू कब ठहरेगा ?"अंगुलिमाल चकित था। उसके सामने आने वालो की हमेशा भय से घिग्घी बंध जाया करती थी। आज तक उसे कोई आदमी ऐसा न मिला था ,जो उसकी नजर से नजर मिलाकर बात करता। यह कौन है , जो डरना तो दूर ,शांतिपूर्वक मुस्करा रहा है। महात्मा के रोम -रोम से प्रेम बरस रहा था ,उनकी आँखो से दया टपक रही थी। 
        वे फिर बोले -" बोल , कब ठहरेगा तू ?"अंगुलिमाल के ऊपर महात्मा के शब्दों का जादू -सा असर हुआ। घुटने टेककर वह बोला -" महात्मा मै आपकी बात नहीं समझ सका। "बुद्ध बोले --" अरे ,जीवन तो अपने आप दुःखी है ,फिर तू अपने दुःखभरे कारनामो से उसके दुःख को और क्यों बढ़ा रहा है ?बुद्ध होकर मै तो उस बधंन से छूट गया ,पर तू जा इस प्रकार से मार -काट के काम अभी करता जा रहा है ,इससे कब छुटटी लेगा ?"डाकू जिसने डर कभी जाना न था ,जिससे सारी दुनिया काँपती थी ,आज स्वयं महात्मा के तेज से काँप रहा था। सहसा वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और बोला --"महात्मन !मुझे राह बताइए। मेरे सामने अंधेरा -ही -अंधेरा है। "
             बुद्ध ने तत्काल उसे उपदेश दिया। शांति ,दया और प्रेम का पाठ पढ़ाया। उसे अपना शिष्य बना लिया। यह सचाई ,दया और प्रेम की कुरुरता तथा घृणा में विजय थी। डाकू के पास भाला था ,तलवार थी। महात्मा बुद्ध केवल निहते थे ,परंतु उनके पास संसार को मित्र बना लेने वाला प्रेम था ,दया थी ,निर्मल ह्रदय था। 











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