Es abhav ki purti krni hi hogi
घड़ी जैसी अनेक पुर्जो वाली मशीन तभी ठीक प्रकार बन और चल पाई है ,जब उनके सभी घटको का निर्माण ठीक तरह किया गया हो ,उनकी गतविधियों के बीच संतुलन बिठाया गया हो। इस व्यवस्था के बिना उस निर्माण में लगा हुआ धन और श्रम व्यर्थ ही चला जाता है। घड़ी निकम्मी पड़ी रहती है। यही बात अन्य छोटी बड़ी मशनियो पर पूरी तरह लागू होती है। उसके निर्माता तभी अच्छा लाभ और यस कमा पाते है ,जब उनके पुर्जे सन्तुलति रीति से बने और फिट किये गए हो।
सृष्टा की महिमा इसलिए भूरि -भूरि प्रशंसा के योग्य है कि उसमे व्यवस्था कर्म का आस्चर्यजनक सुनियोजन हुआ है। उसमे कमी या गड़बड़ी रहती तो अनिरंथी स्वेछाचारी ग्रहे गोलक आपस में टकराते और टूट -फूट कर नष्ट होते रहते। प्राणियों और वनस्पतियो के सबंध में भी यही बात है। वे इसलिए एक व्यवस्था के अनुरूप उगते ,बढ़ते और परिवर्धित होते रहते है। यहां तक कि खुली आँखो से न दीख पड़ने वाले अणु -परमाणु तक अपने छोटे कलेवर में विशाल सौर मंडल जैसी गतिविधियों के अनुकरण का उदहारण प्रस्तुत करते रहते है। यदि इस विशाल ब्रहांड व्यवस्था में कही भी असंतुलन रहा होता ,तो यह समूचा पसारा कूड़े -कर्कट कि तरह दीख पड़ता और उस व्यवस्था के बीच टूट -फूट का परिचय मिलता रहता। किसी भी वस्तु को काम कर सकना असम्भव हो जाता।
सृष्टि का सोन्दर्ये और उपयोग इसी व्यवस्था कौशल के आधार पर गतिशील हो रहा है।
शरीरो की सरचंना और मन :संथान की बनावट में भी चकित करने वाला ताल -मेल देखा जाता है। जहां भी गड़बड़ी खड़ी हुई ,वहां विग्रह विद्रो खड़े हो जाते है,और आधी -व्याधियों का दौर चल पड़ता है। परिवार तरनत जीवित प्राणियों का एक छोटा -सा तरनत है। यदि उसके सभी नियमोपनियम ठीक तरह से पलते रहे तो समझना चाहिए की अपने छोटे घर -घरोंदो के आँगन में स्वर्ग जैसा आनंद मचलता -इठलाता देखा जा सकेगा। यदि पारस्परिक व्यवहार और कर्म व्यवस्था में अनिमितता घुस पड़े तो समझना चहिए कि यहां देवासुर संग्राम का उदय हुआ।
एक -दूसरे की टांग खींचने का सिलसिला शुरू हुआ और वह समूचा परिवार नरक रूप में परणित हुआ। यहां परस्पर विरोधी परिस्थितियों के उत्पन होने का एक मात्र कारण यह है कि व्यवस्था बुद्धि अपनी जगह पर से हट गई है और उच्छखलता ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया है।
सृष्टा की महिमा इसलिए भूरि -भूरि प्रशंसा के योग्य है कि उसमे व्यवस्था कर्म का आस्चर्यजनक सुनियोजन हुआ है। उसमे कमी या गड़बड़ी रहती तो अनिरंथी स्वेछाचारी ग्रहे गोलक आपस में टकराते और टूट -फूट कर नष्ट होते रहते। प्राणियों और वनस्पतियो के सबंध में भी यही बात है। वे इसलिए एक व्यवस्था के अनुरूप उगते ,बढ़ते और परिवर्धित होते रहते है। यहां तक कि खुली आँखो से न दीख पड़ने वाले अणु -परमाणु तक अपने छोटे कलेवर में विशाल सौर मंडल जैसी गतिविधियों के अनुकरण का उदहारण प्रस्तुत करते रहते है। यदि इस विशाल ब्रहांड व्यवस्था में कही भी असंतुलन रहा होता ,तो यह समूचा पसारा कूड़े -कर्कट कि तरह दीख पड़ता और उस व्यवस्था के बीच टूट -फूट का परिचय मिलता रहता। किसी भी वस्तु को काम कर सकना असम्भव हो जाता।
सृष्टि का सोन्दर्ये और उपयोग इसी व्यवस्था कौशल के आधार पर गतिशील हो रहा है।
शरीरो की सरचंना और मन :संथान की बनावट में भी चकित करने वाला ताल -मेल देखा जाता है। जहां भी गड़बड़ी खड़ी हुई ,वहां विग्रह विद्रो खड़े हो जाते है,और आधी -व्याधियों का दौर चल पड़ता है। परिवार तरनत जीवित प्राणियों का एक छोटा -सा तरनत है। यदि उसके सभी नियमोपनियम ठीक तरह से पलते रहे तो समझना चाहिए की अपने छोटे घर -घरोंदो के आँगन में स्वर्ग जैसा आनंद मचलता -इठलाता देखा जा सकेगा। यदि पारस्परिक व्यवहार और कर्म व्यवस्था में अनिमितता घुस पड़े तो समझना चहिए कि यहां देवासुर संग्राम का उदय हुआ।
एक -दूसरे की टांग खींचने का सिलसिला शुरू हुआ और वह समूचा परिवार नरक रूप में परणित हुआ। यहां परस्पर विरोधी परिस्थितियों के उत्पन होने का एक मात्र कारण यह है कि व्यवस्था बुद्धि अपनी जगह पर से हट गई है और उच्छखलता ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया है।
व्यवसाय पूरी तरह व्यवस्था बुद्धि की अपेक्षा करते है। उसमे गड़बड़ी रहे तो पड़ोसी जिस काम में अच्छा -खासा लाभ उठाते है ,वहा लापरवही और गैर जिमेदारी के बीच चलने वाले व्यवसाय घाटा उठाते और अन्तः दिवालिया बनते देखे गए है। यही बात प्रगति के चैत्र में लागु होती है। व्यवस्था की पल -पल पर क्षण -क्षण पर आवश्य्कता पड़ती है। इसमें जहा जितनी कमी या विद्रुपता पाई जायगी ,वहां उतनी ही असंतोष छाया मिलेगा। गड़बड़ियों का दोषारोपण एक -दूसरे पर मढ़ रहा होगा। कुल मिलाकर वह तरंत लड़खड़ा जायेगा और उपहास ,लांछन और भर्तसना का भोजन बनेगा।
हर छोटे -बड़े काम को करने में पहले उसकी सही योजना बनानी पड़ती है ,और सफलतापूर्वकः कार्यविन्त करनी पड़ती है। यदि ऐसा न हो तो समझना चाहिए कि घर -आँगन का साफ -सुथरा रखना ,ठीक तरह रसोई बनाना ,खाना ,नियत आजीविका में खर्च चला सकना तक कठिन पड़ जायेगा। ऐसा ही प्रमाद बरतने पर अच्छी आमदनी वाले भी तगी सहते और कर्जदार रहते है।
बुद्धिमता की जांचे -परख के अनेको आधार है। उसके आधार पर अपने -अपने काम में सभी लोग सफलता पाते और लाभ उठाते है। किन्तु उन सभी संदर्भो में कुशल है , समझना चाहिए कि उसके लिए पग -पग पर श्रेय प्राप्त करते चलना कुछ कठिन नहीं रह गया। इसके विपरीत जो जितना अस्त -व्यस्त ,गैर जिम्मेदार और लापरवहा है ,उसे उतना ही निकम्मा समझा जाएगा। भले ही उसके पास संपता ,शिक्षा सुंदरता जैसी विभूतियाँ कितनी ही क्यों न हो ?अकेली सुवस्था ही है जो अनेको गुथियो को सुलझती है और अवरोधों के भवंरो से नाव को
बहार निकल लेती है।
विकास परिजनो के लिए पचवर्षीय योजनाए बनती है। काम -काज चलने के लिए बजट बनते है। भवन बनाने के पूर्व आर्चिटेट के उस नक्से की आवश्कता पड़ती है ,जिसके अनुसार साधन जुटाने ,पूंजी की व्यवस्था करने अदि की आवश्य्कता पड़ती है। यदि इसकी उपेक्षा की जाए , तो जो बन पड़ेगा ,वह कुरूप तो होगा ही , साथ ही ऐसी त्रुटियाँ भी बनी रहेगी ,जो निर्माणकर्ता के लिए सदा सिर दर्द बनी रहे।
अधिकारी गणो में सभी की उपयोगिता और प्रतिष्ठा है ,किन्तु यदि उन सब में सर्वोपिर दायित्व का पद देखा जाये तो वह व्यवस्थापक का ही मिलेगा। सरकारी तरंत में इसे मैनेजर ,कंटोरल ,सुप्रिटेन्ट अदि नामो से जाना
जाता है। क्योकि उसी की समझदारी और नासमझी के आधार पर काम बनते -बिगड़ते रहते है। जो मार्ग दर्शन कर सकता है ,जिसमे किसी कार्य के साथ जुड़े हुवे अनेकानेक प्रशनो को समय रहते समझ लेने और तदनुरूप समाधान निकलने की छमता है ,समझना चाहिए की वही अपने उपकर्म का मरुदण्ड है। ऐसे व्यक्ति जहां भी दायित्व सभांलते है वही सफलता के चार -चांद लगा देते है। साथियो की तुलना में दस कदम आगे ही रहते है। ऐसे ही लोगो को सेना का सेनापति और कारोबार का मैनेजर बनाया जाता है। यदि उनकी समझदारी अनुभवों पर सही आकलन कर सकने की छमता पर आधारित रही तो समझना चहिये कि सफलता की आधी मंजिल पार हो गयी। महत्वपूर्ण काम कर गुजरने वालो में से प्रेत्यक को दूरदर्शिता व्यवहार कुशलता और प्रबंध शक्ति का परिचय देना पड़ा है। इसके बिना भटकने खीजने ,घाटा उठाने और अपयश बटोरने के अतरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। यदि किसी तरंत के सुसंचालन का सौभाग्य उपलब्ध नहीं हुआ वह किसी प्रकार लड़खड़ाते गिरते -पड़ते चलता तो रहेगा , पर दबाव बढ़ जाने पर जो हाथ में है वह भी गवां बैठेगा और सर्वसाधरण की द्र्ष्टि में अयोग्ये , अनाड़ी या उपहासास्पद ही बनकर रहेगा।
अधिकारी गणो में सभी की उपयोगिता और प्रतिष्ठा है ,किन्तु यदि उन सब में सर्वोपिर दायित्व का पद देखा जाये तो वह व्यवस्थापक का ही मिलेगा। सरकारी तरंत में इसे मैनेजर ,कंटोरल ,सुप्रिटेन्ट अदि नामो से जाना
जाता है। क्योकि उसी की समझदारी और नासमझी के आधार पर काम बनते -बिगड़ते रहते है। जो मार्ग दर्शन कर सकता है ,जिसमे किसी कार्य के साथ जुड़े हुवे अनेकानेक प्रशनो को समय रहते समझ लेने और तदनुरूप समाधान निकलने की छमता है ,समझना चाहिए की वही अपने उपकर्म का मरुदण्ड है। ऐसे व्यक्ति जहां भी दायित्व सभांलते है वही सफलता के चार -चांद लगा देते है। साथियो की तुलना में दस कदम आगे ही रहते है। ऐसे ही लोगो को सेना का सेनापति और कारोबार का मैनेजर बनाया जाता है। यदि उनकी समझदारी अनुभवों पर सही आकलन कर सकने की छमता पर आधारित रही तो समझना चहिये कि सफलता की आधी मंजिल पार हो गयी। महत्वपूर्ण काम कर गुजरने वालो में से प्रेत्यक को दूरदर्शिता व्यवहार कुशलता और प्रबंध शक्ति का परिचय देना पड़ा है। इसके बिना भटकने खीजने ,घाटा उठाने और अपयश बटोरने के अतरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। यदि किसी तरंत के सुसंचालन का सौभाग्य उपलब्ध नहीं हुआ वह किसी प्रकार लड़खड़ाते गिरते -पड़ते चलता तो रहेगा , पर दबाव बढ़ जाने पर जो हाथ में है वह भी गवां बैठेगा और सर्वसाधरण की द्र्ष्टि में अयोग्ये , अनाड़ी या उपहासास्पद ही बनकर रहेगा।
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